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रविवार, 18 अक्तूबर 2020

असली रहस्य जन्म मरण का..

मानव बार- बार जन्म लेता है पर इस आवागमन से छुटकारा नहीं मिल पाता। यह चक्र चलता रहता है क्योंकि मनुष्य जो भी कर्म करता है उसका फल प्राप्त करने के लिए उस का आना जाना लगा रहता है। हम चाहे प्रेम करते हैं या नफरत, हमे अपने कर्मो का फल भोगना पड़ता है। सुख-दुख हमारे साथ चलते रहते हैं। पूर्वजन्म के कर्म ही हमें वर्तमान जन्म में एक दूसरे के निकट लाते हैं। चाहे हम किसी के ऋणी हो या कोई हमारा ऋणी हो। ये ऋण ही हमें आवागमन के चक्कर में फंसाये रखते हैं। हमारे मन ही के कारण कर्म होता है और कर्म ही के कारण आत्मा का आवागमन चलता रहता है। हमारे शरीर को प्रकृति ने बनाया है और मन को संस्कृति ने बनाया है। जब तक मन का अस्तित्व रहेगा तब तक यह मानव आत्मा बार-बार स्थूल शरीर ग्रहण करेगी और त्याग करेगी। यही जन्म मरण का खेल है। जब मानव अपनी आत्मा से मन को अलग कर देगा तो इसे आवागमन से छुटकारा मिल जाएगा और फिर वह परम शांति और परम विश्राम को प्राप्त कर लेता है। अब मन को शरीर से अलग करने के लिए मन और शरीर के बीच जो प्राण का स्पन्द काम करता है उस स्पन्द पर अधिकार जमाना पड़ता है। जब उस स्पन्द पर अधिकार हो जायेगा तो मन और शरीर का संबंध टूट जायेगा क्योंकि प्राण स्पन्द ही दोनों को एक दूसरे से मिलाता है। इस ज्ञान के होने पर हमे आवागमन के चक्र से मुक्ति मिल जाती है। 

चित्र--गूगल साभार 

बुधवार, 30 सितंबर 2020

अंको का खेल


अंको का हमारे जीवन में बहुत महत्व है। हमारे आसपास मौजूद अंक हमारे जीवन का रहस्य खोलते हैं। हमें आनेवाली हर घटनाओं के बारे में सचेत करते हैं। हम उन्हें समझने को तैयार है या नहीं इस के लिए हमें अपनी अंतर्दृष्टि का इस्तेमाल करना चाहिए क्योंकि यह ईश्वर ही है जो हमें अंको के माध्यम से हमे उत्तर देते हैं। जीवन और मृत्यु का खेल इन अंको के बीच समाया हुआ है। जब कभी भी हम दुविधा, परेशानी या अंसमजस में फंसे हुए हो तो हमें अपना उत्तर इन अंको के माध्यम से मिल जाता है। ईश्वर स्वयं प्रकट न हो कर अंको के माध्यम से हमारे जीवन का मार्गदर्शन करते हैं। इसलिए जब कभी भी आपको बार बार कोई अंक दिखाई दे जैसे घड़ी में 5:55, 6:66 किसी सड़क पर बोर्ड पर, किसी वाहन पर एक ही अंक बार बार दिखाई दे तो उसके अर्थ को जान आगे का मार्ग निश्चित करे।

चित्र - - गगूल साभार 

शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2020

श्री शिवाष्टक स्तोत्र


श्री शिवाष्टक स्त्रोत्र

जय शिवशंकर, जय गंगाधर, करुणा-कर करतार हरे,
जय कैलाशी, जय अविनाशी, सुखराशि, सुख-सार हरे
जय शशि-शेखर, जय डमरू-धर जय-जय प्रेमागार हरे,
जय त्रिपुरारी, जय मदहारी, अमित अनन्त अपार हरे,
निर्गुण जय जय, सगुण अनामय, निराकार साकार हरे।
पार्वती पति हर-हर शम्भो, पाहि पाहि दातार हरे॥
जय रामेश्वर, जय नागेश्वर वैद्यनाथ, केदार हरे,
मल्लिकार्जुन, सोमनाथ, जय, महाकाल ओंकार हरे,
त्र्यम्बकेश्वर, जय घुश्मेश्वर भीमेश्वर जगतार हरे,
काशी-पति, श्री विश्वनाथ जय मंगलमय अघहार हरे,
नील-कण्ठ जय, भूतनाथ जय, मृत्युंजय अविकार हरे।
पार्वती पति हर-हर शम्भो, पाहि पाहि दातार हरे॥
जय महेश जय जय भवेश, जय आदिदेव महादेव विभो,
किस मुख से हे गुणातीत प्रभु! तव अपार गुण वर्णन हो,
जय भवकारक, तारक, हारक पातक-दारक शिव शम्भो,
दीन दुःख हर सर्व सुखाकर, प्रेम सुधाकर की जय हो,
पार लगा दो भव सागर से, बनकर करूणाधार हरे।
पार्वती पति हर-हर शम्भो, पाहि पाहि दातार हरे॥
जय मनभावन, जय अतिपावन, शोकनशावन,शिव शम्भो
विपद विदारन, अधम उदारन, सत्य सनातन शिव शम्भो,
सहज वचन हर जलज नयनवर धवल-वरन-तन शिव शम्भो,
मदन-कदन-कर पाप हरन-हर, चरन-मनन, धन शिव शम्भो,
विवसन, विश्वरूप, प्रलयंकर, जग के मूलाधार हरे।
पार्वती पति हर-हर शम्भो, पाहि पाहि दातार हरे॥
भोलानाथ कृपालु दयामय, औढरदानी शिव योगी,
सरल हृदय,अतिकरुणा सागर, अकथ-कहानी शिव योगी,
निमिष मात्र में देते हैं,नवनिधि मन मानी शिव योगी,
भक्तों पर सर्वस्व लुटाकर, बने मसानी शिव योगी,
स्वयम्‌ अकिंचन,जनमनरंजन पर शिव परम उदार हरे।
पार्वती पति हर-हर शम्भो, पाहि पाहि दातार हरे॥
आशुतोष! इस मोह-मयी निद्रा से मुझे जगा देना,
विषम-वेदना, से विषयों की मायाधीश छुड़ा देना,
रूप सुधा की एक बूँद से जीवन मुक्त बना देना,
दिव्य-ज्ञान- भंडार-युगल-चरणों को लगन लगा देना,
एक बार इस मन मंदिर में कीजे पद-संचार हरे।
पार्वती पति हर-हर शम्भो, पाहि पाहि दातार हरे॥
दानी हो, दो भिक्षा में अपनी अनपायनि भक्ति प्रभो,
शक्तिमान हो, दो अविचल निष्काम प्रेम की शक्ति प्रभो,
त्यागी हो, दो इस असार-संसार से पूर्ण विरक्ति प्रभो,
परमपिता हो, दो तुम अपने चरणों में अनुरक्ति प्रभो,
स्वामी हो निज सेवक की सुन लेना करुणा पुकार हरे।
पार्वती पति हर-हर शम्भो, पाहि पाहि दातार हरे॥
तुम बिन व्याकुल हूँ प्राणेश्वर, आ जाओ भगवन्त हरे,
चरण शरण की बाँह गहो, हे उमारमण प्रियकन्त हरे,
विरह व्यथित हूँ दीन दुःखी हूँ दीन दयालु अनन्त हरे,
आओ तुम मेरे हो जाओ, आ जाओ श्रीमंत हरे,
मेरी इस दयनीय दशा पर कुछ तो करो विचार हरे।



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