कामाख्या शक्तिपीठ असम राज्य के गुवाहाटी के पश्चिम में 8 किलोमीटर दूर नीलांचल पर्वत पर स्थित है। कामाख्या मंदिर जो 51 महाशक्ति पीठो मे से एक है। यहां सती माता का योनि अंग गिरा था इसलिए इसे योनिपीठ भी कहा जाता है। कामाख्या मंदिर में प्रवेश करते ही एक बहुत बड़ा हॉल है।उस हॉल के बीच में हरगौरी के रुप में कामेश्वर शिव-कामेश्वरी देवी की युगल मूर्ति स्थापित है। सीढ़ियां उतर कर गर्भगृह है। कामाख्या योनि पीठ से निरंतर जल बहता रहता है। यह जल कहाँ से आता है और कहाँ जाता है, यह एक रहस्य है।
गर्भगृह में देवी माता की योनि रूपा शिला विद्यमान है, जो वस्त्र से ढकी रहती है और उस के सामने दीपक जलता रहता है। शक्ति पीठ की रक्षा के लिए उन से संबंधित एक भैरव होते हैं। भैरव को शिव का ही रूप माना जाता है। भैरव जो पीठ की रक्षा करते हैं उन्हें क्षेत्रपाल भी कहा जाता है। कामाख्या मंदिर के भैरवजी उमानन्द जी है। इन के दर्शन करने पर ही कामाख्या मंदिर की यात्रा पूरी मानी जाती है। कामाख्या देवी के मंदिर के निकट एक कुंड है।जिसे सौभाग्य कुण्ड कहा जाता है। कुंड का पानी लाल रंग का है। कुंड के पास ही गणेश जी का मंदिर है। इन का दर्शन करना भी जरूरी होता है।जब आषाढ़ मास में सूर्य आर्द्रा नक्षत्र में प्रवेश करता है तो उस समय पृथ्वी ऋतुमति होती है।इस समय को अम्बुवाची पर्व कहते है। यहां हर साल इस समय अम्बुवाची मेला लगता है। उस दौरान पास में स्थित ब्रह्मपुत्र का पानी तीन दिन के लिए लाल हो जाता है। कामाख्या देवी के मासिक धर्म के कारण पानी का रंग लाल हो जाता है।माना जाता है कि जब मां तीन दिन की रजस्वला होती है तो सफेद रंग का कपडा मंदिर के अंदर बिछा दिया जाता है। चौथे दिन ब्रह्म मुहूर्त में देवी को स्नान करवाकर श्रृंगार के उपरान्त ही मंदिर श्रद्धालुओं के दर्शन के लिए खोला जाता है। तीन या चार दिन बाद जब मंदिर के दरवाजे खोले जाते हैं, तब वह वस्त्र माता के रज से लाल रंग से भीगा होता है। इस भीगे कपड़ें को अम्बुवाची वस्त्र कहते है। इसे ही भक्तों को प्रसाद के रूप में दिया जाता है।
तंत्र साधना के लिए यह सबसे महत्वपूर्ण जगह मानी जाती है।ऐसा माना जाता है कि उच्च कोटि के तंत्र साधक इस अवसर पर सूक्ष्म शरीर द्वारा माता के दर्शनों के लिए आते हैं। कामाख्या में अम्बुवाची पर्व के अलावा दो उत्सव और मनाए जाते हैं।पहला देवध्वनि उत्सव, इसमें वाद्ययंत्रों के साथ नृत्य किया जाता है और दूसरा हर-गौरी विवाह। पौष माह के कृष्ण पक्ष में पुष्य नक्षत्र में यह उत्सव मनाया जाता है, जिसमें कामेश्वर की चल मूर्ति को कामेश्वर मंदिर में प्रतिष्ठित किया जाता है। दूसरे दिन देवी के मंदिर में दोनों मूर्तियों का हर-गौरी विवाह का उत्सव मनाया जाता है।
चित्र... गूगल साभार
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (03-01-2021) को "हो सबका कल्याण" (चर्चा अंक-3935) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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नववर्ष-2021 की मंगल कामनाओं के साथ-
हार्दिक शुभकामनाएँ।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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मेरे लेख को मंच में शामिल किया। उसके लिए आपका आभार। नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं।
हटाएंविदेहि देवि कल्याणं विदेहि परमांं श्रियम् ।
जवाब देंहटाएंरूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।।
🙏
हटाएंबहुत ही सुन्दर लेख और ज्ञानवर्धक जानकारी
जवाब देंहटाएंनववर्ष मंगलमय हो
नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं। मेरे ब्लॉग में आप आयी और मेरे लेख को पसंद किया उसके लिए आपका आभार।
हटाएंजानकारी युक्त लेख।
जवाब देंहटाएंनववर्ष मंगलमय हो आपको।
आप को मेरा यह लेख पंसद आया। उसके लिए आप का धन्यवाद जी। आप को भी नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं।
हटाएंअर्थपूर्ण जानकारी।
जवाब देंहटाएंआभार।
हटाएंभारतीय आध्यात्मिक परंपरा की एक अनोखी कड़ी है तंत्र साधना और उसका सबसे महत्वपूर्ण केंद्र है कामख्या। गैर हिंद/ भारतीय जनों को यह विस्मित कर देने वाली सोच और परंपरा लग सकती है। अभी हाल में ही विशेष नेशनल म्यूजियम में तांत्रिक परंपरा के ऊपर एक बहुत अच्छी प्रदर्शनी लगाई गई है है आपके इस पोस्ट के लिए धन्यवाद
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